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Arjun Krishan Samvad

*”अर्जुन–कृष्ण संवाद”*

बिठाकर रथ में ले चले, माधव अब अपने पार्थ को,
रणभूमि में ला बोले, पार्थ त्यागो अपने स्वार्थ को।

ये स्वार्थ नहीं केशव, ये मेरा अपनों से लगाव है,
निजीजनों की हत्या करूं, न ऐसा मेरा स्वभाव है।

यूं पाल पोसकर बड़ा किया, हम सारे भ्राता भाइयों को,
कदम मिलाकर साथ छुआ हमने सारी ऊंचाइयों को।

वो भीष्म पितामह खड़े समक्ष, उन पर मैं शस्त्र चलाऊं कैसे?
कुंती मां के अश्रु देख, खुदको रणधीर बनाऊं कैसे?

गुरु द्रोण ने स्नेह दिया, मेरी विजय में झूमा करते वो,
उन्हे बाण की नोक दिखाऊं कैसे, मेरे करो को चूमा करते जो?

माना की भूल हुई उनसे, पर क्षमा उन्हे मैं करता हूं,
हृदय से जिन्हे लगाया प्रभु, उन्हे खोने से मैं डरता हूं।

मुख देखूं जिस व्यक्ति का,
बस निराश दिखाई देता है,
इस युद्ध के अंजाम में बस, विनाश दिखाई देता है।

अब बोलो माधव इन्ही हाथों से पाप कैसे कर जाऊं मैं,
अपने कुल का अंत देखने से पूर्व ही मर जाऊं मैं।

रथ पर बैठ गया अर्जुन, ले नेत्र अश्रु से भरे हुए,
गांडीव छूटा हाथों से, माधव व्याकुल हो खड़े हुए,

मोह में चक्षुहीन पार्थ का, साहस न मिटने दूंगा,
शूरवीर योद्धा अर्जुन के, पग नहीं डिगने दूंगा।

द्रुत स्वर में बोल उठे, कायरता की सीमा मत लांगो,
अधर्मियों के लिए पार्थ तुम, जीवन की भिक्षा मत मांगो।

सम्मुख खड़े प्रतापियों के, पापों का घड़ा है छलक रहा,
ये किन दुष्टों के लिए तुम्हारे नेत्रों में प्रेम है झलक रहा?

चढ़ा प्रत्यंचा गांडीव पे पार्थ, देर नहीं अब करनी है,
अधर्मियों का तांता यहां, जो करनी वो ही भरनी है।

केशव तुम सर्वव्यापी हो, खुदको ईश्वर बतलाते हो,
सब वेदों के ज्ञाता हो, क्यों रूप नहीं दिखलाते हो?

यह सुन केशव का अंतर्मन क्रोध से पूरा डोल गया,
तीनों लोको का स्वामी अब तीष्ण स्वर में बोल गया।

के नजर इधर घुमाओ पार्थ,
कानों को तुम खोल लो….

मैं ही त्रेता का राम हूं।

मैं ही त्रेता का राम हूं, और मैं ही परशुराम भी,
मैं ही मत्स्य अवतार हूं, और मैं राधा का श्याम भी।

गोवर्धन को कनिष्ठा पर उठाने वाला भी मैं हूं,
कलियां नाग के फन पे मर्दन करने वाला भी मैं हूं।

बालपन में लाखों असुरों को, मैने जिंदा गाड़ दिया,
नरसिंह बनकर मैने ही, हिरण्यकश्यप फाड़ दिया।

न नर न नारी हूं मैं, न मेरी कोई जाति है,
सूर्य तपाने वाली अग्नि, सब मुझसे ही आती है।

मृदु मयूरपंख धारी मैं, विकराल सुदर्शन धारी भी,
जीवन दायनी भी मैं हूं, और मैं ही हूं संहारी भी।

ये रणभूमि मिथ्या है, सत्य ब्रह्मांड का मैं ही हूं,
गांडीव को है तू चलाए, पर तेरे हर बाण में मैं ही हूं।

ब्रह्मांड बनाया मैने है, ये सब मेरी ही माया है,
वो सबकुछ शेष निरर्थक है, जिसपर मेरी न छाया है।

जैसे ही मेरे माधव का कद थोड़ा सा जो बड़ा हुआ,
हाथ जोड़कर अर्जुन प्रभु के चरणों में था पड़ा हुआ।

मार्ग से भटके अर्जुन का अब, चूर–चूर था दंभ हुआ,
दशावतार परमेश्वर का अब, गीता ज्ञान आरंभ हुआ।

शूरवीर हैं फौलादी रण के परिणाम से डरते नहीं,
और युद्ध से पूर्व भयभीत योद्धा, रणभूमि में उतरते नहीं।

धर्म के आगे सारे बंधन सारे संबंध व्यर्थ पड़े,
धर्म का साथ न छोड़ो तुम चाहे कितने हो अनर्थ गड़े।

धरा पर अपने नाम को रक्त से यूं अंकित कर जाओ तुम,
धर्म के रक्षकों में खुदको, रेखांकित कर पाओ तुम।

तुम कल के आए कल जाओगे, मोह तुम्हे किस बात का है?
ये मनुष्य नहीं सब भ्रम है, विछोह तुम्हे किस नात का है?

समरभूमि में शूर मरते हैं, न कोई दूजा जाता है,
कफन में लिपटे योद्धा का तो, मृतक भी पूजा जाता है।

जीवन मरण के चक्रव्यूह का परमात्मा रचयिता है,
पंच विकार त्यागे जिसने, उसने आत्मा को जीता है।

इतना सुन अर्जुन का सीना, अग्नि सा दहाड़ पड़ा,
खींच चढ़ाई प्रत्यंचा मानो, अर्जुन नहीं पहाड़ खड़ा।

इतने बाण चलाऊंगा, लाशों के ढेर लगा दूंगा,
अधर्मियों का अंत कर, धरा से अंधेर मिटा दूंगा।

दुशासन: के रक्त से, पांचाली ने थे केश भिगोए,
सूर्यपुत्र कर्ण की मृत्यु पे, माधव भी थे बहुत रोए।

केशव की माया के आगे, कौरव टुकड़ी भयभीत हुई,
लाखों की सेना मार गिरा, पांडू पुत्रों की जीत हुई।

इंद्रप्रस्थ का ताज युधिष्ठिर के सर पे था चढ़ा वहां,
ये भी केशव की माया है, बस अर्जुन को था पता यहां।

हरी नारायण, परम् ब्रह्म और पार्थ के रथवान की जय,
दोनों हाथ उठाकर बोलें, चक्रधारी भगवान की जय।

–अकांशी

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